Monday 15 January 2018

उत्तरायणी मेला @ बरेली # पहाड़ी संस्कृति की झलक 

यह बहुत हर्षोल्लास एवं मानसिक किण्वन का भी विषय है कि मैदानों में ; चाहे भाबर हो या दिल्ली-बरेली, एक पहाड़ का उत्थान और विकास हो रहा है । इस पहाड़ की संरचना एवं विन्यास पूर्णतया सांस्कृतिक है । परंतु , भौगोलिक  पहाड़ आज अलगाव एवं विरानेपन की दासता बयां कर रहे है ।
     पहाड़ का दर्द युगों से चला आ रहा है कि पहाड़ो की जवानी , मिट्टी और पानी कभी पहाड़ो के काम नही आती । शायद यह पलायन की पराकाष्ठा है या फिर पहाड़ का प्रारब्ध है कि अब यह संस्कृति भी मैदानों में विकृत रूप धारण कर रही है । आख़िरकार , जो भी है ठीक ही है कि आज भी पहाड़ के लोग पहाड़ से तो नहीं , पर जागर , छोल , छोलिया , गहत , भट , चूख , मडुआ आदि सांस्कृतिक घटको से जुड़े हुए हैं । ये सांस्कृतिक घटक ही हैं जो आज भी शहरी जीवन के बीच पहाड़ को जिंदा रखे हुए है।

मेरे लिए यह बहुत ही उहापोह का विषय हैं कि किसी भी संस्कृति को परम्परागत रूप में जिंदा रखा जाए या फिर संस्कृति का रूप स्वच्छंद होना चाहिए । संस्कृति का रूप जैसा समुदाय चाहे वैसा ओड़े , पहने और अपनाये । सारांश यह है कि हम संस्कृति से चले या फिर हम संस्कृति से चले ?

जो भी हो , आखिर हम पहाड़ी ठहरे !

Being Pahari

दीपक कुमार जोशी Deeps

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