गर बात होती जिस्म की,
तो दिमाग लगा लेता दीप्स।
ना दिल ने काम किया ,
न दिमाग ने ,
कुछ काम ही ऐसा किया
तेरी रूह ने ,
मुझे भी दीदार हुआ मेरा ,
वरना , इंसा होकर भी ,
इंसान का दीदार न होता ।
न जाने कैसे , इक पल में
ये दुरी तय की मैंने ?
वरना , यहाँ उलझने को,
जिस्मों कमी नहीं ।
शायद , इसी उलझन में ,
एक उम्र बीत जाती ,
आख़िर , कितने जिस्मों को
आजमाता दीप्स ।।
घर - घर जाकर ,
इंसाँ तलाश रहा था ,
तेरी रूह ने मुझे,
इंसान क्या बना दिया ,
अब मुझे हर तरफ,
इंसाँ ही नजर आते हैं ।।
दीपक कुमार जोशी
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