Sunday, 30 April 2017

रूह का सफ़र

गर बात होती जिस्म की,
तो दिमाग लगा लेता दीप्स।
ना दिल ने काम किया ,
न दिमाग ने ,
कुछ काम ही ऐसा किया
तेरी रूह ने ,
मुझे भी दीदार हुआ मेरा ,
वरना , इंसा होकर भी ,
इंसान का दीदार न होता ।

न जाने कैसे , इक पल में
ये दुरी  तय की मैंने ?
वरना , यहाँ उलझने को,
जिस्मों कमी नहीं ।
शायद , इसी उलझन में ,
एक उम्र बीत जाती ,
आख़िर , कितने जिस्मों को
आजमाता दीप्स ।।

घर - घर जाकर ,
इंसाँ  तलाश रहा था ,
तेरी रूह ने मुझे, 
इंसान क्या बना दिया ,
अब मुझे  हर तरफ,
इंसाँ ही नजर आते हैं ।।

दीपक कुमार जोशी 
deeps2200.blogspot.in

Copyright@ 2017deepsjoshi

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