हर रात जलती है
रूह मेरी
नये जिस्मों की आग से ।
रूह मेरी
नये जिस्मों की आग से ।
ज़र्रा - ज़र्रा जलकर
ख़ाक हो गयी है
रूह मेरी ।
ख़ाक हो गयी है
रूह मेरी ।
पर , इंतज़ार रहता मुझे
हर शाम नये जिस्मों का
आग से उनकी जलता
चूल्हा मेरा अब ।
हर शाम नये जिस्मों का
आग से उनकी जलता
चूल्हा मेरा अब ।
रोशन होता है घर मेरा
जब जलती है
रूह मेरी ।।
जब जलती है
रूह मेरी ।।
दीपक कुमार जोशी
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