आसमां को छूते,
जमीं पर फैलते,
इस शहर में कोई
आशियां नज़र नही आता ।।
पल पल दौड़ते
भागते शहर में ,
तन्हाई के सिवा कुछ
नज़र नही आता ।।
बहुत ख़ुसनसीब था जफ़र ,
मिली दो गज जमी जिसको ।
अब जमी तो दूर ,
मिट्टी का कण
नज़र नही आता ।।
कितने आबाद है
ये शहर
गुमनाम ज़िन्दगी जीने के लिए ।।
दीपक कुमार जोशी
कॉपीराइट @दीप्स102
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